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ग़ज़ल
नहीं तुझ से हमें दावा-ए-ख़ूँ गर शम्अ ने क़ातिल
अब अपने ख़ूँ का महज़र गर्दन-ए-गुल-गीर पर लिक्खा
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
शम्अ' की नज़्र इधर जान पतंगों की हुई
वक़्फ़-ए-गुल-गीर इधर शम्अ' का सर है कि नहीं
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
गर 'बक़ा' नाज़ से गोया हो मिरा ग़ुंचा-दहन
गर्दन-ए-ग़ुंचा गिरे शर्म से ढुल बरसर-ए-गुल
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
कहते हैं देख के ज़ुल्फ़ उस के रुख़-ए-ताबाँ पर
कभी होता नहीं उस शम्अ' से गुल-गीर जुदा
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
गर्मी-ए-शौक़ नहीं है तो दहन में ऐ शम्अ
किस लिए तेरी ज़बाँ लेता है गुल-गीर से पूछ
इम्दाद इमाम असर
ग़ज़ल
चश्मक-ए-यार हैं मुझ शम्अ के हक़ में गुल-गीर
दम ये क़ैंची के मैं अन्फ़ास-ए-मसीहा समझूँ
वली उज़लत
ग़ज़ल
ज़रा छेड़ा जो उस ने हो गई ऐसी ज़-ख़ुद-रफ़्ता
कि शम'-ए-बज़्म ने गुल-गीर के लब पर ज़बाँ रख दी
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शम' का सर काटे है
रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़