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ग़ज़ल
बड़ा ग़रीब-नवाज़ और कारसाज़ है तू
हमारी बिगड़ी भी ऐ ज़ुल-जलाल बन के रहे
नवाब सय्यद हकीम अहमद नक़्बी बदायूनी
ग़ज़ल
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआ'फ़
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रहे दिल ही में तीर अच्छा जिगर के पार हो बेहतर
ग़रज़ शुस्त-ए-बुत-ए-नावक-फ़गन की आज़माइश है