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ग़ज़ल
मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत को चार चाँद
ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मिरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
है ख़ुदा गवाह तिरे बिना मिरी ज़िंदगी तो न कट सकी
मुझे ये बता कि मिरे बिना तिरी उम्र कैसे गुज़र गई