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ग़ज़ल
जाने कब किस पर खुल जाए शहर-ए-फ़ना का दरवाज़ा
जाने कब किस को आ घेरे अपने मर जाने का ग़म
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ कि जिस को ऐ 'नज़ीर'
अपने घेरे में लिए रहते हैं बुत-ख़ाने कई
नज़ीर बनारसी
ग़ज़ल
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी
मुझे घेरे हुए है हर तरफ़ से बे-रुख़ी मेरी