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ग़ज़ल
पर्दा-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा में भी रहा हूँ करता
तुझ से मैं अपनी ही ग़ीबत मुझे मा'लूम न था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ग़ीबत का हदफ़ तुम ने जो रक्खा था वो मैं था
और मैं ने जिसे टूट के चाहा था वो तुम थे
मुर्तज़ा बरलास
ग़ज़ल
किसी से अपने हक़ में कुछ सुना भी है तो जाने दो
बुरा तो बादशाह को भी कहा करते हैं ग़ीबत में
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
ग़ीबत-ए-दहर बहुत गोश-ए-गुनहगार में है
कुछ ग़म-ए-इश्क़ के औसाफ़-ए-करीमाना सुना