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ग़ज़ल
नहीं मालूम कि मातम है फ़लक पर किस का
रोज़ क्यूँ चाक गिरेबान-ए-सहर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कभी गिरेबाँ चाक हुआ और कभी हुआ दिल ख़ून
हमें तो यूँही मिले सुख़न के सिले सड़क के बीच
हबीब जालिब
ग़ज़ल
मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
फ़स्ल-ए-बहार के आते आते कितने गिरेबाँ चाक हुए
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
सब गिरेबाँ सी रहे हैं सेहन-ए-गुल में बैठ कर
कौन अब सहरा को जाए, है कहाँ चर्चा तिरा