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ग़ज़ल
लाश के नन्हे हाथ में बस्ता और इक खट्टी गोली थी
ख़ून में डूबी इक तख़्ती पर ग़ैन-ग़ुबारा लिक्खा था
अहमद सलमान
ग़ज़ल
देखो तो पेट बन गया आख़िर ग़ुबारा गैस का
खाते हो इतना गोश्त क्यों पीते हो इतनी चाय क्यों
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
थे इक ग़ुब्बारा-नुमा आसमाँ की क़ैद में हम
ग़ुब्बारा फोड़ के ताज़ा हवा में साँस लिया
इम्दाद आकाश
ग़ज़ल
चला था जब वो मेले में पकड़ कर हाथ मेरा
फ़ज़ा में सब से ऊँचा जो ग़ुब्बारा था वो मैं था
एख़लाक़ अहमद एख़लाक़
ग़ज़ल
ये सोच कर कभी दुनिया से तल्ख़ बात न की
कि पिन चुभी तो कहाँ बच सकेगा ग़ुब्बारा