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ग़ज़ल
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हो जो मिन्नत से तो क्या वो शब नशीनी बाग़ की
काट अपनी रात को ख़ार-ओ-ख़स-ए-गुलख़न जला
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
फ़ना को सौंप गर मुश्ताक़ है अपनी हक़ीक़त का
फ़रोग़-ए-ताला-ए-ख़ाशाक है मौक़ूफ़ गुलख़न पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जुनूँ में जा-ब-जा हम जो लहू रोते हैं सहरा में
गुलों के शौक़ में वीराने को गुलशन बनाते हैं
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की
आई ख़िज़ाँ गुलज़ार में जब गुल-बर्ग से गुलख़न-ताबी की
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
क्या तिरे जज़्बात के शो'ले भड़क सकते नहीं
क्या तिरा वो गुलख़न-ए-पुर-सोज़ अब गुल-पोश है
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
ग़ज़ल
अश्क-ए-ग़म रोके रहें फ़ाक़ा-गुज़ारों से कहो
पानी गुलख़न से चला नूह के तूफ़ाँ के लिए
मानी नागपुरी
ग़ज़ल
दूद-ए-गर्दूं शो'ला ख़ुर आतिश शफ़क़ अख़गर नुजूम
आलम-ए-बाला मिरी आहों से गुलख़न हो गया