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ग़ज़ल
बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से
जो गुल ख़ंदाँ है गुलशन में तो गिर्यां शम-ए-महफ़िल में
निहाल लखनवी
ग़ज़ल
हँस दिए ज़ख़्म-ए-जिगर जैसे कि गुल-हा-ए-बहार
मुझ पे माइल है बहुत नर्गिस-ए-शहला-ए-बहार
सुहैल काकोरवी
ग़ज़ल
घड़ी भर रंग निखरा सूरत-ए-गुल-हा-ए-तर मेरा
उसी हस्ती पे उस गुलशन में था ये शोर-ओ-शर मेरा
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
दाग़ों के ही क़ाबिल थे हम इस बाग़ में ऐ 'बहर'
गुलचीन-ए-मुक़द्दर ने दिए हैं ये सड़े फूल
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
ज़िंदगी के गुलसिताँ में रो पड़ी आ कर 'बहार'
आँसुओं को फिर लगाया उस ने ग़ाज़े की तरह
बहारुन्निसा बहार
ग़ज़ल
उठा ले जाएँ गुलशन से किधर हम आशियाँ अपना
हुआ है ऐन फ़स्ल-ए-गुल में दुश्मन बाग़बाँ अपना