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ग़ज़ल
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
रिश्ता-ए-तेग़-ओ-गुलू अब भी सलामत है 'फ़राज़'
अब भी मक़्तल की तरफ़ दिल सा जवाँ खेंचता है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
गुलू-ए-ख़ुश्क उन को भेजता है दे के मश्कीज़ा
कुछ आँसू तिश्ना-कामों के अलम-बरदार होते हैं
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
मर गई सर्व पे जब हो के तसद्दुक़ क़ुमरी
उस से उस दम भी न तौक़ अपने गुलू का निकला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हल्क़ा-ए-ख़्वाब को ही गिर्द-ए-गुलू कस डाला
दस्त-ए-क़ातिल का भी एहसाँ न दिवाने से उठा
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन
नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फिर कोई मंज़र फिर वही गर्दिश क्या कीजे ऐ कू-ए-निगार
मेरे लिए ज़ंजीर-ए-गुलू मेरी आवारा-निगाही है