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ग़ज़ल
अल्लाह री गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है का'बा को इक पारसा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वहइ-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
अल्लाह रे गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है काबे को इक पारसा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मुझे राह-ए-सुख़न में ख़ौफ़-ए-गुम-राही नहीं ग़ालिब
असा-ए-ख़िज़्र-ए-सहरा-ए-सुख़न है ख़ामा बे-दिल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इरफ़ान सत्तार
ग़ज़ल
ये इज़्तिराब-ए-शौक़ है 'अख़्तर' कि गुमरही
मैं अपने क़ाफ़िले से हूँ कोसों बढ़ा हुआ
अख़्तर सईद ख़ान
ग़ज़ल
कुछ और गुमरही-ए-दिल का राज़ क्या होगा
इक अजनबी था कहीं रह में खो गया होगा
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वहइ-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है