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ग़ज़ल
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
बज़्म-ए-अहबाब में हासिल न हुआ चैन मुझे
मुतमइन दिल है बहुत, जब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
हैं रवाँ उस राह पर जिस की कोई मंज़िल न हो
जुस्तुजू करते हैं उस की जो हमें हासिल न हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बस हुजूम-ए-ना-उमीदी ख़ाक में मिल जाएगी
ये जो इक लज़्ज़त हमारी सई-ए-बे-हासिल में है