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ग़ज़ल
ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
खुले थे शहर में सौ दर मगर इक हद के अंदर ही
कहाँ जाता अगर मैं लौट के फिर घर नहीं जाता
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
बे-ख़याली में यूँही बस इक इरादा कर लिया
अपने दिल के शौक़ को हद से ज़ियादा कर लिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-पर्वर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या