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ग़ज़ल
ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो'लों से
तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
मैं तिरी नींद हूँ आँखों में छुपा ले मुझ को