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ग़ज़ल
दर-ब-दर ख़्वार हुए फिरते हैं हम हिज्र-नसीब
जाँ-सिपारी का भी क्या ख़ूब नतीजा निकला
आलमताब तिश्ना
ग़ज़ल
ज़हे नसीब कि इम्कान-ए-ज़ीस्त अब तक है
तुम्हारा हिज्र ही उन्वान-ए-ज़ीस्त अब तक है