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ग़ज़ल
जो बोसा वस्ल में मांगों तो दें सज़ा मुझ को
जो लब हिलाऊँ तो वो काट लें ज़बाँ मेरी
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी कभी बे-चराग़ ये घर न हो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें
ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं