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ग़ज़ल
ज़माम-ए-कार अगर मज़दूर के हाथों में हो फिर क्या
तरीक़-ए-कोहकन में भी वही हीले हैं परवेज़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
घिरा बादल ख़मोशी से ख़िज़ाँ-आसार बाग़ों पर
हिले ठंडी हवाओं में शजर आहिस्ता आहिस्ता
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
क्या तअ'ज्जुब है जो उस को देख कर आ जाए रहम
वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वाँ हिले अबरू यहाँ फेरी गले पर हम ने तेग़
बात का ईमा से पाना कोई हम से सीख जाए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
'आज़ुर्दा' होंट तक न हिले उस के रू-ब-रू
माना कि आप सा कोई जादू-बयाँ नहीं