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ग़ज़ल
तुम इसे कह लो हिसाब-ए-दोस्ताँ-दर-दिल 'फ़ज़ा'
हम ने अपना नफ़अ' भी लौह-ए-ज़ियाँ पर लिख दिया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
हिसाब-ए-दर्द तो यूँ सब मिरी निगाह में है
जो मुझ पे हो न सकीं वो नवाज़िशें लिखना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
हिसार-ए-हर्फ़-ओ--हुनर तोड़ कर निकल जाऊँ
कहाँ पहुँच के ख़याल अपनी वुसअ'तों का हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी
रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
किस के लब पर देखना हर्फ़-ए-दुआ रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
हर्फ़-ओ-अल्फ़ाज़-ओ-म’आनी के हिजाबों में न थी
बात चेहरों पर जो लिक्खी थी किताबों में न थी
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
वो हर्फ़-ए-आरज़ू जिस पर मुकम्मल ज़ब्त है अब तक
कहीं ऐसा न हो शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
कब खुला उक़्दा 'रज़ा' जब कर चुके इज़हार-ए-शौक़
मुद्दआ' जाएज़ था हर्फ़-ए-मुद्दआ' मा'यूब था
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
हम ऐसे अहल-ए-चमन गोशा-ए-क़फ़स में भी
हिसाब-ए-ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ में रहते हैं