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ग़ज़ल
गिर न जाए तिरे मेयार से अंदाज़-ए-हुरूफ़
यूँ कभी नाम भी तेरा नहीं लिख्खा मैं ने
हामिद मुख़्तार हामिद
ग़ज़ल
मैं नौहे कब नहीं लिखता हूँ रफ़्तगाँ के 'ज़फ़र'
कब अश्क मिस्ल-ए-हुरूफ़-ए-हुनर नहीं आते
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
जो ज़ेहन में हैं हुरूफ़ उन को काम में लाऊँ
जो दुख पड़े ही न हों उन की दास्ताँ लिख दूँ
कालीदास गुप्ता रज़ा
ग़ज़ल
लरज़ते होंटों से गिर पड़े थे हुरूफ़ इक दिन
दिल अपने जज़्बों की तर्जुमानी से डर रहा था