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ग़ज़ल
है हुसूल-ए-आरज़ू का राज़ तर्क-ए-आरज़ू
मैं ने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने
हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये हुसूल-ए-ज़र की ख़्वाहिश एक ला'नत की तरह
आख़िर इक दिन तुझ को अपनों से जुदा कर जाएगी
शकील सरोश
ग़ज़ल
हुसूल-ए-दर्द-ओ-ग़म की कोशिशों में गर कमी होती
सुरूर-ओ-कैफ़ की लज़्ज़त कहाँ मुझ को मिली होती