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ग़ज़ल
लो वस्ल की साअ'त आ पहुँची फिर हुक्म-ए-हुज़ूरी पर हम ने
आँखों के दरीचे बंद किए और सीने का दर बाज़ किया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गिर्या-ए-नीम-शबी की ने'मत जब से बहाल हुई
हर लहज़ा उम्मीद-ए-हुज़ूरी बढ़ती जाती है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
पहुँचा फ़लक को फ़क़्र का रुत्बा हुज़ूर-ए-ऐश
कम्बल चढ़े हैं चर्ख़-ए-दो-शालों के सामने
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
स्वाभिमान से बढ़ कर कुछ नहीं है जीवन में
फिर ये क्यों ख़ुशामद है क्यों ये जी हुज़ूरी है