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ग़ज़ल
ज़ख़्म मिलते हैं इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल मिलता नहीं
वज़-ए-क़ातिल रह गई रस्म-ए-मसीहाई गई
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
लिखीं जब कातिब-ए-तक़दीर ने बंदों की तक़दीरें
मिरे हिस्से में इज्ज़ और उन के हिस्से में ग़ुरूर आया
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
शौक़ है सामाँ-तराज़-ए-नाज़िश-ए-अरबाब-ए-अज्ज़
ज़र्रा सहरा-दस्त-गाह ओ क़तरा दरिया-आश्ना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो राज़-ए-नाला हूँ कि ब-शरह-ए-निगाह-ए-इज्ज़
अफ़्शाँ ग़ुबार-ए-सुर्मा से फ़र्द-ए-सदा करूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँड लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है
हस्तीमल हस्ती
ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता
तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल-ए-सोगवार हो न सका
वो ग़म-नवाज़ रहा ग़म-गुसार हो न सका
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
तर्ज़-ए-निगाह-ए-इज्ज़ यही अर्ज़-ए-हाल है
ऐ रम्ज़-दाँ हमन के अँखियों का कलाम जान