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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अपने ही अहद में इक शख़्स फ़साना बन जाए
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तौहीद तो ये है कि ख़ुदा हश्र में कह दे
ये बंदा दो-आलम से ख़फ़ा मेरे लिए है