aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
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'अजब इंतिशार-ए-सुख़न में था तिरे रू-ब-रूसो मैं अपनी बात को मुख़्तसर नहीं कर सका
इंतिहा-ए-कमाल-ए-सुख़न अब कहाँ इन दयारों में वो बाँकपन अब कहाँआज तरफ़ैन में है 'अजब फ़ासला तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
मुझे भी दौलत-ए-शेर-ओ-सुख़न नसीब हुईअजीब हुस्न अता उस के इंतिख़ाब में है
मिरी शनाख़्त है अहल-ए-सुख़न में बस इतनीकिया गया है अलग इंतिख़ाब कर के मुझे
इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करतेवो एक बार मिले थे तो फिर मिला करते
हवस किसी को हो देखने की जो मौज-ए-बे-इंतिहा-ए-दरियातो आ के चश्मों को देखे मेरी कि याँ से है इब्तिदा-ए-दरिया
न सिर्फ़ तुझ से मुझे इंतिक़ाम लेना हैहिसाब-ए-वहशत-ए-उम्र-ए-तमाम लेना है
नम मिरे ख़ून से अब ख़ाक-ए-ग़ज़ल हो जाएफिर रक़ीबों को भी इदराक-ए-ग़ज़ल हो जाए
बजा के उस ने रियाज़त की इंतिहा कर दीमगर ख़याल की लौ शे'र से जुदा कर दी
क्यूँ के बारे में क्या के बारे मेंअक़्ल चुप है ख़ुदा के बारे में
कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप सेइक दिन निकल न जाऊँ ज़रा अपने आप से
सुख़न का मसअला लफ़्ज़-ए-किताब तक नहीं हैये कुल्लियात मिरा इंतिख़ाब तक नहीं है
वो भी सराहने लगे अर्बाब-ए-फ़न के बा'ददाद-ए-सुख़न मिली मुझे तर्क-ए-सुख़न के बा'द
पत्ते गिरे हैं शाख़ से इस ए'तिबार मेंफिर से निकल ही आएँगे अगली बहार में
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगावो लम्स मेरे बदन को गुलाब कर देगा
ज़िंदगी दर्द का निसाब रहीऔर कभी नग़्मगी का बाब रही
जब परी-रू हिजाब करते हैंदिल के दर्पन कूँ आब करते हैं
मिस्ल-ए-बहिश्त-ए-ख़ुश-नुमा कौन-ओ-मकान मेंइंसान मुब्तला है अजीब इम्तिहान में
बस इतना हौसला रक्खा हुआ हैतिरा ग़म जा-ब-जा रक्खा हुआ है
तर्ज़-ए-सुख़न में आप के हो इंकिसार भीरखिए मगर निगाह में अपना वक़ार भी
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