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ग़ज़ल
कल ही तो इक़बाल 'मतीन' जिस नीम के नीचे बैठा था
आज उस का साया भी नहीं है कोई पेड़ उगाओ भी
इक़बाल मतीन
ग़ज़ल
'मतीन' इक़बाल आँखें पोंछ लो तकिया छुपा रक्खो
वो देखो अपने आँगन में सवेरा हो गया आख़िर
इक़बाल मतीन
ग़ज़ल
'मतीन-इक़बाल’ इतनी बात तुम ने भी नहीं समझी
मोहब्बत का वो दरिया इस क़दर पायाब कैसा था