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ग़ज़ल
दस्त-ए-तलब कुछ और बढ़ाते हफ़्त-इक़्लीम भी मिल जाते
हम ने तो कुछ टूटे-फूटे जुमलों ही पे क़नाअत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
नहीं इक़लीम-ए-उल्फ़त में कोई तूमार-ए-नाज़ ऐसा
कि पुश्त-ए-चश्म से जिस की न होवे मोहर उनवाँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है फ़ौज फ़ौज-ए-ग़म्ज़ा-ओ-अंदाज़ तेरे साथ
अक़्लीम-ए-नाज़ का है तुझे तख़्त-ओ-ताज आज
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
वफ़ा की सल्तनत इक़्लीम-ए-वादा सर-ज़मीन-ए-दिल
नज़र की ज़द में है ख़्वाबों से ताबीरों के किश्वर तक