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ग़ज़ल
बढ़ती जाती है जो मश्क़-ए-सितम उस ज़ालिम की
कुछ मोहब्बत मिरी इस्लाह मगर देती है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
जो मुस्तक़बिल से पुर-उम्मीद हो वो शायर-ए-मुतलक़
'शुजा-ख़ावर' से अपनी फ़िक्र की इस्लाह करवा ले
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
इस्लाह भी ज़रूरी है अब इस की शैख़-जी
दाढ़ी तुम्हारी क़िबला-ए-हाजात बढ़ गई
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ज़ोहद-ओ-तक़्वा ओ इस्लाह-ए-दर-हुस्न-ए-अमल
कुछ नहीं मुझ में मगर क्या तिरी रहमत भी नहीं
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
पुख़्तगी समझे हुए हैं जो तनासुब को फ़क़त
चाहिए इस्लाह उन को इस ख़याल-ए-ख़ाम की
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
दर-ओ-बसत-ए-जहाँ में देखते हैं सक़्म कुछ 'आली'
और अपनी सोच का इक नक़्शा-ए-इस्लाह रखते हैं
जलील ’आली’
ग़ज़ल
नाम को ऐ दिल न रख अस्बाब-ए-इस्लाह-ए-जुनूँ
वादी-ए-वहशत में चल कर नश्तर-ए-हर-ख़ार तोड़
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
तुम्हारी शाइ'री से दिल ही जलता है फ़क़त 'ज़ेबी'
कि मुमकिन ही नहीं इस्लाह यूँ जाँ को खपाने से
ज़ेबुन्निसा ज़ेबी
ग़ज़ल
हुसूल-ए-इल्म की ख़ातिर तो ज़रबें सहनी पड़ती हैं
ग़रज़ इस्लाह होती है फ़क़त आज़ार क्या मतलब