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ग़ज़ल
ज़ब्त-ए-ग़म से लाख अपनी जान पर बन आए है
हाँ मगर ये इज़्ज़त-ए-सादात तो रह जाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
'बाक़र' से नहीं इज़्ज़त-ए-सादात पे कुछ हर्फ़
आशिक़ तो बना फिरता है बदनाम नहीं है
सज्जाद बाक़र रिज़वी
ग़ज़ल
या हुस्न ही इस शहर में काफ़िर नहीं होता
या इश्क़ यहाँ इज़्ज़त-ए-सादात में गुम है
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
भरम रखना है कुछ तो इज़्ज़त-ए-सादात का आख़िर
कि अब होने लगी हैं इश्क़ में रुस्वाइयाँ मुझ को