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ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
ऐ दीदा-ए-गिर्यां क्या कहिए इस प्यार-भरे अफ़्साने को
इक शम्अ' जली बुझने के लिए इक फूल खिला मुरझाने को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
दयार-ए-इश्क़ में इक क़ल्ब-ए-सोज़ाँ छोड़ आए थे
जलाई थी जो हम ने शम्अ' रस्ते में जली कब तक
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
दिल की मेहराब में इक शम्अ जली थी सर-ए-शाम
सुब्ह-दम मातम-ए-अरबाब-ए-वफ़ा होता है