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ग़ज़ल
जब जाँ पे लब-ए-जानाँ की महक इक बारिश मंज़र हो जाए
हम हाथ बढ़ाएँ और इस में महताब गुल-ए-तर हो जाए
जमशेद मसरूर
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
क्या पिघलता जो रग-ओ-पै में था यख़-बस्ता लहू
वक़्त के जाम में था शोला-ए-तर ही कितना