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ग़ज़ल
तो जानियो मुक़र्रर उस को 'सुरूर' आशिक़
कुछ दर्द की सी हालत जिस के सुख़न से निकले
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
फिर फँसूँ मैं दाम-ए-गेसू में तो काफ़िर जानियो
छोड़ दे लिल्लाह अब ओ ना-मुसलमाँ छोड़ दे
रिन्द लखनवी
ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल शबनम से तर मत जानियो ऐ बाग़बाँ
गुल ने दामन से किए बुलबुल के आँसू पाक रात
रज़ा अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
आस्तीं हश्र के दिन ख़ून से तर हो जिस की
ये यक़ीं जानियो उस को कि मिरा क़ातिल है