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ग़ज़ल
अगर वो सर्व-क़द गर्म-ए-ख़िराम-ए-नाज़ आ जावे
कफ़-ए-हर-ख़ाक-ए-गुलशन शक्ल-ए-क़ुमरी नाला-फ़र्सा हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है तू दुश्मन न हो जावे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
एक तो नैनाँ कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
अगर कैफ़-ए-सुख़न मेरा निहाल-ए-ताक को पहुँचे
सुराही शाख़ बन जावे शराब अंगूर से टपके
आरिफ़ुद्दीन आजिज़
ग़ज़ल
न वाजिब ही कहा जावे न सादिक़ मुमतना उस पर
किया तश्ख़ीस कुछ हम ने न हरगिज़ शख़्स-ए-इम्काँ को
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से
गुनहगारों में समझा करियो अपनी बे-गुनाही को