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ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
ज़ात-कदे में पहरों बातें और मिलीं तो मोहर ब-लब
जब्र-ए-वक़्त ने बख़्शी हम को अब के कैसी मजबूरी
मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल
क्या बला जब्र-ए-असीरी है कि आज़ादी में भी
दोश पर अपने लिए फिरते हैं ज़िंदाँ-ख़ाना हम
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
गिरी हुई दीवारों में जकड़े से हुए दरवाज़ों की
ख़ाकिस्तर सी दहलीज़ों पर सर्द हवा ने डरना है