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ग़ज़ल
अगर कुछ आश्ना होता मज़ाक़-ए-जब्हा-साई से
तो संग-ए-आस्तान-ए-का'बा जा मिलता जबीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जो आप दर से उठा न देते कहीं न करता मैं जब्हा-साई
अगरचे ये सरनविश्त में था तुम्हारे सर की क़सम न होता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
न आया रहम कुछ भी आह दिल में उस सितमगर के
हमारी जब्हा-साई के असर से आस्ताँ रोया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
नहीं मिटती है पत्थर की लकीर अहबाब कहते हैं
रहेगा पा-ए-बुत पर नक़्श अपनी जब्हा-साई का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
मज़े मिले तिरे दर पर वो जब्हा-साई के
मैं बे-नियाज़-ए-अज़ाब-ओ-सवाब हो के रहा
सय्यद बशीर हुसैन बशीर
ग़ज़ल
आब-ए-ज़मज़म से मैं धो लूँ अपनी पेशानी के तईं
दर पे तब उस के इरादा जब्हा-साई का करूँ