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ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जला कर आशियाँ इस फ़स्ल-ए-गुल में बाग़बाँ मेरा
जहन्नुम तू ने मुझ पर कर दिया गुलज़ार क्या कहिए
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
दिन मशक़्क़त के जहन्नुम में गुज़ारा मैं ने
ढूँडने निकला हूँ अब ताज़ा हवा शाम के बाद