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ग़ज़ल
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
हवस-कारान-ए-इशरत आह क्या समझेंगे ऐ 'अख़्तर'
बहुत दुश्वार है ज़ौक़-ए-अलम का राज़-दाँ होना
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं
तिरा इंतिज़ार बहुत किया तिरा इंतिज़ार भी अब नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
न हवा-ए-जाह-ए-सिकंदरी न हवस कि महफ़िल-ए-जम मिले
मिरे दोस्त तेरे दयार की मुझे ख़ाक ज़ेर-ए-क़दम मिले
अयाज़ आज़मी
ग़ज़ल
वो चराग़-ए-जाँ कि चराग़ था कहीं रहगुज़ार में बुझ गया
मैं जो इक शो'ला-नज़ाद था हवस-ए-क़रार में बुझ गया
इरफ़ान सत्तार
ग़ज़ल
बुलंद इतना ग़ुबार-ए-कारवाँ रखते तो अच्छा था
मुक़ाबिल कहकशाँ के कहकशाँ रखते तो अच्छा था
मुसव्विर करंजवी
ग़ज़ल
ज़ात-ओ-सिफ़ात का तिरी राज़ अयाँ निहाँ भी है
दिल में यक़ीं की शक्ल है आँख में तो गुमाँ भी है