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ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
जलाल-ए-पादशाही हो कि जम्हूरी तमाशा हो
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा