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ग़ज़ल
इतनी यादें हैं कि जमने नहीं पाती है नज़र
बंद आँखों के दरीचों से मैं क्या क्या देखूँ
परवीन फ़ना सय्यद
ग़ज़ल
दिन ढलने पर नस नस में जब गर्द सी जमने लगती है
कोई आ कर मेरे लहू में फिर मुझ को नहलाता है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रग-ए-जाँ में जमने लगा लहू उसे मुश्क बनने की आरज़ू
है उदास दश्त-ए-ततार-ए-दल उसे फिर शलंग-ए-ग़ज़ाल दे