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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जनाब-ए-वाइज़-ओ-पीर-ए-मुग़ाँ कामिल तो हैं दोनों
वो कुछ इरशाद करते हैं ये कुछ इरशाद करते हैं
वसीम ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जनाब-ए-वाइज़-ए-रंगीं-बयाँ से कोई ये पूछे
कि क्यों हर वा'ज़ में ज़िक्र-ए-मय-ओ-पैमाना होता है
बेदिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
नहीं मिलता जिसे फ़ैज़-ए-जनाब-ए-साक़ी-ए-कौसर
मयस्सर उस को 'शाग़िल' बादा-ए-इरफ़ाँ नहीं होता
शाग़िल उसमानी
ग़ज़ल
जनाब-ए-नासेह-ए-मुशफ़िक़ हैं कुछ खोए हुए 'तालिब'
किसी काफ़िर को शायद देख आए बे-हिजाबाना
तालिब जयपुरी
ग़ज़ल
तो मर्हबा की इक सदा हरम की सम्त से उठी
क़सीदा-ए-जनाब-ए-बू-तुराब लिख रहे थे हम