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ग़ज़ल
मिरी ज़ीस्त इक जनाज़ा है जो राह-ए-वक़्त में है
जो थकेंंगे दिन के काँधे तो सुपुर्द-ए-शाम होगा
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
तुम्हारे बाद अब जिस का भी जी चाहे मुझे रख ले
जनाज़ा अपनी मर्ज़ी से कहाँ कांधा बदलता है
वसीम नादिर
ग़ज़ल
नाश-ए-रवाँ हूँ ज़ीस्त है मेरी फ़रेब-ए-ज़ीस्त
फिरता हूँ ज़िंदगी का जनाज़ा लिए हुए