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ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बता ऐ 'फ़ैज़' आख़िर गाँव जा कर क्या करेगा
तू जिस के नाम की जपता था माला थक चुका है
फ़ैज़ ख़लीलाबादी
ग़ज़ल
तुझ बुत का हूँ मैं बरहमन कर्तार की सौगंद है
जपता हूँ माला यार की ज़ुन्नार की सौगंद है