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ग़ज़ल
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
आब-ओ-गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं
सय्यद जहीरुद्दीन ज़हीर
ग़ज़ल
दोनों जौलाँ-गाह-ए-जुनूँ हैं बस्ती क्या वीराना है
उठ के चला जब कोई बगूला दौड़ पड़ा वीराना भी
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
न सोवे आबलों में गर सरिश्क-ए-दीदा-ए-नाम से
ब-जौलाँ-गाह-ए-नौमीदी निगाह-ए-आजिज़ाँ पा है