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ग़ज़ल
मेरे हिस्से ही में लिक्खा था समा'अत को तरसना
वर्ना अतराफ़-ओ-जवानिब बे-ज़बाँ कोई नहीं था
शहराम सर्मदी
ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था