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ग़ज़ल
सरासर ताख़तन को शश-जिहत यक-अर्सा जौलाँ था
हुआ वामांदगी से रह-रवाँ की फ़र्क़ मंज़िल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है निशाँ मेरा भी शायद शश-जिहात-ए-दहर में
ये गुमाँ मुझ को ख़ुद अपनी बे-निशानी से हुआ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
'इश्क़ के तग़ाफ़ुल से हर्ज़ा-गर्द है 'आलम
रू-ए-शश-जिहत-आफ़ाक़ पुश्त-ए-चश्म-ए-ज़िन्दाँ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
छेड़ दी मैं ने अगर रूदाद-ए-हुस्न-ए-शश-जिहत
ना-मुकम्मल क़िस्सा-ए-दैर-ओ-हरम रह जाएगा
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
गुलदस्ता-ए-जिहात था नैरंग-ए-राह-ए-इश्क़
था इक तिलिस्म-ए-हुस्न-ए-ख़याबान-ए-दाम-ए-शाम
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
शश-जिहत से इस में ज़ालिम बू-ए-ख़ूँ की राह है
तेरा कूचा हम से तू कह किस की बिस्मिल-गाह है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ