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ग़ज़ल
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
जीभ के दो सिर के दो रुख़्सार के दो सब के दो
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
ग़ज़ल
जिन की जीभ के कुंडल में था नीश-ए-अक़रब का पैवंद
लिक्खा है उन बद-सुखनों की क़ौम पे अज़दर बरसे थे
मजीद अमजद
ग़ज़ल
जबीन-ए-शौक़ को क्या इम्तियाज़-ए-दैर-ओ-हरम
किसे ख़बर है कि किस दर पे जिबह-सा हूँ मैं
हिरमाँ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
उठवा रहा है मुझ को 'नुदरत' किसी के दर से
ये ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी ये शौक़-ए-जिब्हा-साई