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ग़ज़ल
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना
जितने भी हैं रूप तुम्हारे जीते-जी दिखला देना
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं
ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
और ही वो लोग हैं जिन को है यज़्दाँ की तलाश
मुझ को इंसानों की दुनिया में है इंसाँ की तलाश
नज़ीर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बहुत से ज़ख़्म जिन को मुस्तक़िल मेहमान रक्खा है
बदन की क़ैद में कुछ दर्द का सामान रक्खा है
आईरीन फ़रहत
ग़ज़ल
आशिक़ कहें हैं जिन को वो बे-नंग लोग हैं
माशूक़ जिन का नाम है वो संग लोग हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जिन को हर हालत में ख़ुश और शादमाँ पाता हूँ मैं
उन के गुलशन में बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ पाता हूँ मैं