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ग़ज़ल
मैं उदासियाँ न सजा सकूँ कभी जिस्म-ओ-जाँ के मज़ार पर
न दिए जलें मिरी आँख में मुझे इतनी सख़्त सज़ा न दे
बशीर बद्र
ग़ज़ल
है मिरा नाम-ए-अर्जुमंद तेरा हिसार-ए-सर-बुलंद
बानो-ए-शहर-ए-जिस्म-ओ-जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
जौन एलिया
ग़ज़ल
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया
जौन एलिया
ग़ज़ल
मिरे जिस्म-ओ-जाँ में तिरे सिवा नहीं और कोई भी दूसरा
मुझे फिर भी लगता है इस तरह कि कहीं कहीं कोई और है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
तेरे रुख़्सार से जब जब है गुज़रते आँसू
जिस्म-ओ-जाँ में मेरे जैसे है उतरते आँसू
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना
जितने भी हैं रूप तुम्हारे जीते-जी दिखला देना