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ग़ज़ल
दिन-भर धूप में चलते चलते हम दोनों की शाम हुई है
थक कर बाँहों में सो जाना ये जिस्मानी प्यार न जानो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
हम कहाँ रूह की बातों में उलझ जाते हैं
दरमियाँ अपने तअल्लुक़ भी तो जिस्मानी है
धीरेंद्र सिंह फ़य्याज़
ग़ज़ल
रग-ओ-पै में दर आता है 'शरर' हर शेर का नश्शा
ग़ज़ल को बारहा तरतीब-ए-जिस्मानी से पहचाना
कलीम हैदर शरर
ग़ज़ल
मैं रूहानी रिश्तों की ता'मीर में उलझा रहता हूँ
एक हवस का झोंका सब कुछ जिस्मानी कर देता है