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ग़ज़ल
जुस्तजू-ए-दैर-ओ-का'बा से हुआ ज़ाहिर यही
मैं हक़ीक़त में ख़ुद अपनी ज़ात से बेगाना था
ब्रहमा नन्द जलीस
ग़ज़ल
जबीन-ए-शौक़ पाबंद-ए-त’अय्युन हो नहीं सकती
मज़ाक़-ए-जुस्तुजू-ए-दैर-ओ-का'बा और ही कुछ है
हक़्क़ी हज़ीं
ग़ज़ल
हरम-ओ-दैर-ओ-कलीसा से निकल आया हूँ
तब कहीं जा के मैं इंसान से मिल पाया हूँ
सय्यद मोहम्मद अहमद नक़वी
ग़ज़ल
नमाज़-ए-अहल-ए-उलफ़त बे-नियाज़-ए-दैर-ओ-काअबा है
गवाही दी जहाँ दिल ने वहीं हम ने जबीं रख दी
सिराज लखनवी
ग़ज़ल
तवाफ़-ए-दैर-ओ-का'बा से यही हासिल हुआ मुझ को
मोहब्बत ही सरापा बंदगी मा'लूम होती है