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ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या कि ये बे-मेहर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम दे देते हैं जू-ए-शीर का
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
वो हीला-गर जो वफ़ा-जू भी है जफ़ा-ख़ू भी
किया भी 'फ़ैज़' तो किस बुत से दोस्ताना किया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
शोला समझा था उसे मैं प भभूका निकला